स्वतंत्रता का लक्ष्य अधूरा है

१५ अगस्त १९४७!! भारतीय इतिहास का एक अविस्मरणीय दिन!! वह स्वर्णिम दिवस, जब सदियों से चली आ रही दासता की श्रुंखला टूटी और हमें स्वराज्य प्राप्त हुआ। हांलाकि, देश का विभाजन हो गया, पर यह विभाजन अपने साथ सैकड़ों वर्षों की गुलामी के अंत का संदेश भी लेकर आया। हजारों देशभक्तों के त्याग और बलिदान के बाद आखिर हमें परतंत्रता से मुक्ति मिली। भारत "स्वतंत्र" हो गया। उस दिन से हम हर वर्ष १५ अगस्त का दिन "स्वतंत्रता-दिवस " के रूप में मानते हैं। लेकिन, देश की वर्त्तमान परिस्थिति को देखकर बार बार प्रश्न उठता है कि 'क्या हम सचमुच स्वतंत्र हैं?'
स्वतंत्रता क्या है? यह एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है, जिसमे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, धार्मिक, शैक्षणिक, प्रशासनिक, न्यायिक, सामरिक, राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रों में किसी भी बाहरी हस्तक्षेप के बिना पूर्णतः स्वतंत्र होकर नीतियां बनाने तथा कार्य करने का अधिकार सम्मिलित है। हम एक भारतीय के रूप में स्वयं से पूछें कि क्या हमें यह स्वतंत्रता प्राप्त है? इसका उत्तर नकारात्मक मिलने कि संभावना ही अधिक है।
स्वतंत्र प्रशासनिक व्यवस्था, न्याय-प्रणाली और शिक्षा पद्धति किसी भी राष्ट्र कि प्रगति एवं स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण आवश्यकताएं हैं। लेकिन,दुःख और चिंता का विषय है कि स्वाधीनता प्राप्ति के इतने वर्षों के बाद भी इन तीनों क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर कोई बहुत बड़े बदलाव नहीं किए गए हैं। हम आज भी उसी प्रशासनिक व्यवस्था, न्याय-प्रणाली और शिक्षा पद्धति का पालन कर रहे हैं, जो विदेशी शासनकर्ताओं द्वारा उनके स्वार्थ के लिए हम पर लादी गई थी। इसी का परिणाम है कि भ्रष्टाचार दीमक बनकर प्रशासन को खोखला कर रहा है और पुलिस को देखकर सुरक्षा का विचार उत्पन्न होने कि बजाय सामान्य नागरिक के मन में भय का संचार हो जाता है। न्यायालयों में हजारों प्रकरण लंबित हैं,जिनके निराकरण में अभी और कितना समय लगेगा, ये कह पाना सम्भव नहीं है। शिक्षा-पद्धति की दशा भी इससे बहुत अलग नहीं है। देश के बच्चे आज भी पुस्तकों में वही विकृत इतिहास पढ़ रहे हैं, जो भारतीयों के मन से आत्म-गौरव कि भावना को नष्ट करने के लिए विदेशियों द्वारा गढा गया था। यही कारण है कि हम सिकंदर 'महान' (?) को तो जानते हैं, लेकिन आर्य चाणक्य और सम्राट चन्द्रगुप्त कौन थे,ये हमें नहीं मालूम। हमें नेपोलियन के बारे में सारी जानकारी है, लेकिन, सम्राट विक्रमादित्य के बारे में हम कुछ नहीं जानते। हमें न्यूटन और पाइथागोरस के योगदान का ज्ञान है, लेकिन आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, चरक, सुश्रुत और बोधायन जैसे ज्ञानियों के अस्तित्व को हम सहजता से नकार देते हैं। हमने वास्को-डी-गामा और कोलंबस की समुद्री यात्राओं के अनेक वर्णन सुने हैं, लेकिन उनसे सदियों पहले भारत से मेक्सिको तक की समुद्री यात्रा करने वाले वुशलून का नाम भी हमने नहीं सुना। क्या ये हमारी शिक्षा पद्धति के दोषपूर्ण होने का प्रमाण नहीं है? इन्ही दोषों का परिणाम है कि देश के करोड़ों युवा यह शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी बेरोजगार हैं और अधिकांश युवाओं का लक्ष्य विदेशों में बस जाना अथवा किसी विदेशी कम्पनी में नौकरी पाना ही है। क्या ये हमारी स्वतंत्रता का लक्षण है?
चिकित्सा का क्षेत्र भी इस विदेशीकरण से अछूता नही है। आयुर्वेद तथा योग जैसी परिपूर्ण पद्धतियों के होते हुए हम आज भी एक विदेशी चिकित्सा पद्धति को ही लादे हुए हैं। फलस्वरूप, दवाओं तथा चिकित्सा सेवाओं की कीमतें आम नागरिक की पहुँच से बाहर होती जा रही हैं और स्वास्थ्य सुविधाओं का सर्वत्र अभाव है। अधिकांश शासकीय अस्पतालों का हाल तो प्राचीन ग्रंथों में मिलने वाले नरक के वर्णन से पूरी तरह मेल खता है। स्वास्थ्य सुविधाओं की अनुपलब्धता तथा चिकित्सा पद्धति की विफलता का सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है की हमारे ९९.९९त्न नेता और जनप्रतिनिधि अपना इलाज निजी चिकित्सालयों में अथवा विदेशों में ही करवाते हैं।
बहुत दुःख का विषय है कि स्वराज्य-प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी सामाजिक और राजनैतिक हालत इतने अधिक चिंताजनक हैं। समाज में स्वार्थ लगातार बढ़ रहा है। अपराध की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। आतंकवाद, नक्सलवाद, विदेशी घुसपैठ इत्यादि खतरे देश को चारों ओर से घेर रहे हैं। देश के किसी न किसी भाग से प्रतिदिन किसी आतंकवादी घटना,नक्सली हमले या किसी बम विस्फोट का समाचार अवश्य मिलता है और ऐसे कठिन समय में सरे मत-भेद भुलाकर एक होने और इन हमलावरों को कुचलने कि बजाय हम भाषावाद, प्रांतवाद और मजहबी उन्माद से ग्रस्त होकर आपस में ही लड़ रहे हैं। या तो हमें सत्य दिखाई नहीं देता, या हम देखना ही नहीं चाहते। पूर्व और पश्चिम जर्मनी मिलकर पुनः एक हो गए, यूरोप में बिखरे हुए विभिन्न देशों ने 'यूरोपियन यूनियन' नामक एक महासंघ बना लिया और यहाँ भारत में हम कभी कश्मीर की आज़ादी और कभी नागालैंड और मणिपुर की पृथकता के नारे सुन रहे हैं। कोई तेलंगाना की बात कहता है, तो कोई मराठियों की अस्मिता का मुद्दा उछाल रहा है। किसी को केवल अपनी जाति की चिंता है और कोई राष्ट्र की बजाय केवल किसी समुदाय-विशेष के हित को ही प्राथमिकता देता है। पड़ोसी देशों से घुसपैठ करनेवाले सभी सुविधाएं प्राप्त कर रहे हैं, यहाँ तक की चुनाव लड़कर विधायिका तक में पहुँच रहे हैं, और दूसरी और लाखों कश्मीरी पंडित अनेक वर्षों से अपने ही देश में शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हैं। प्रांतवाद, भाषावाद और क्षेत्रवाद के नाम पर लड़नेवालों ने कभी भी राष्ट्रवाद की बात नहीं की। ऐसेस्थिति में हमारी स्वाधीनता कब तक सुरक्षित रह सकेगी?
किसी देश की सबसे बड़ी पूँजी वहाँ की युवा पीढी ही होती है। युवा ही देश के भविष्य-निर्माता हैं। भारत की लगभग ५०त्न जनसँख्या युवा है। लेकिन, दुखद पहलु यह है की अधिकांश युवा भ्रमित और दिशाहीन हैं। विदेशी वस्तुं, विदेशी संस्कृति, विदेशी भाषा और विदेशी जीवन शैली को अपनाने के लिए यह युवा पीढी लालायित है। जिस देश में युवावस्था का अर्थ बल, बुद्धि एवं विद्या होना चाहिए, वहाँ अधिकांश युवा इसके विपरीत धूम्रपान, मद्यपान और ड्रग्स जैसे नशीले पदार्थों की चपेट में हैं। उनके जीवन में संयम, धैर्य तथा शान्ति का स्थान स्वच्छंदता, उन्मुक्त जीवन शैली तथा विवेकहीन उन्माद ने ले लिया है। अधिकांश युवाओं को क्रांतिकारियों की कम और क्रिकेट की जानकारी अधिक है। विदेशी वस्तुओं तथा विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर, खादी को प्रतीक बनाकर स्वदेशी के प्रयोग का संदेश देने वाले महात्मा गाँधी के देश में आज कोने कोने तक विदेशी वस्तुओं के विक्रेता पुनः पहुँच गए हैं। जिस देश में कभी 'जय जवान-जय किसान' का मंत्र गूंजता था, वहाँ शासन की नीतियों से व्यथित होकर शहीद सैनिकों के परिजन सरकार को सभी पदक लौटा रहे हैं और किसान प्रतिदिन आत्महत्या कर रहे हैं। सोने की चिडिया कहलने वाला देश छोटे-छोटे कार्यों में आर्थिक सहायता के लिए कभी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, तो कभी विश्व बैंक की और देखता है। हमारी आर्थिक नीतियों से आज भी भारत की बजाय बाहरी देशों को ही अधिक लाभ हो रहा है। ऐसी स्थिति में हम कैसे कह सकते हैं की हम स्वतंत्र हैं?
१५ अगस्त १९४७ को हमें स्वराज्य तो मिल गया, लेकिन, स्वतंत्रता प्राप्त करना अभी शेष है। देश का शासन भारतीयों के हाथों में आ गया, लेकिन, शासन तंत्र के सभी अंगों का भारतीयकरण करना आवश्यक है। जब तक किसी एक क्षेत्र में भी विदेशी तंत्र उपस्थित है, तब तक हम स्वयं को 'स्व-तंत्र' कैसे कह सकते हैं?स्वदेशी, स्वभाषा और स्वाभिमान ही किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्रता के मुख्य स्तम्भ हैं। जब तक इनके आधार पर हम अपना शासन-तंत्र नहीं बदलते, तब तक स्वराज्य को 'सुराज्य' में बदलना भी सम्भव नहीं होगा। जब तक भारत स्वदेशी, स्वभाषा और स्वाभिमान के साथ उठकर पुनः एक बार विश्व के सामने खड़ा नहीं हो जाता, तब तक स्वतंत्रता-प्राप्ति का अर्थ और लक्ष्य अधूरा ही रहेगा।

 
 
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