भारतीय राजनीति, धर्मनीति एवं समाजशास्त्र के मर्मज्ञ प्राचीन आचार्यो के रचित ग्रंथों और व्यास आदि रचित पुराणों में एवं स्मृति आदि राजनीति विषयक तत्त्व ज्ञान में भारतीय राजनीति पद्धति का निरूपण किया गया है उन आचार्यों का अभिप्राय प्रायः यह है कि भारतीय शासक य राजा, धर्म, अर्थ,काम आदि में सामंजस्य स्थापित कर न्यायोचित मार्ग का आश्रय लेकर राजनीति के वास्तविक कर्त्तव्य और अपने उत्तरदायित्व का सफलतापूर्वक निर्वहण कर सके। राजतंत्र में राजा का रहना समाज की रक्षा के लिये आवश्यक था। प्रजा के रक्षा के रूप में राज्याभिषेक प्राप्त कर राज्य को स्थिर किया जाता था। महर्षि याज्ञवल्क्य ने राजा के संबंध में कहा है कि ‘‘राजा को अत्यधिक उत्साही, दान करनेवाला, विनम्र, सत्यगुणसम्पन्न, अच्छे कुल में उत्पन्न, सत्यवादी, पवित्र, विलंब से काम न करने वाला, स्मरणशक्तियुक्त, अच्छे गुण वाला, धार्मिक, निव्यर्सनी, बुद्धिमान्, वीर, रहस्य को जानने वाला अपने दोषों को गुप्तों रखने वाला, आन्वीक्षिकी, दंडनीति और त्रयी विद्याओं का ज्ञाता होना चाहिए। महोत्साहः स्थूलक्षः कृतज्ञो वृद्धसेवकः।विनीताः सत्त्वसम्पन्नः कुलीनः सत्यवाक्शुचिः ॥दीर्घसूत्रः स्मृतिमानऽचक्षुद्वोऽपरुषस्तथा।धार्मिकोऽव्यसनश्चैव प्राज्ञः शूरो रहस्यवित्॥स्वरन्ध्रगोप्ताऽन्वीक्षिक्यां दण्डनीत्यां तथैव च।विनीतस्त्वथ वार्तायां त्रय्यां चैव नराधिपः ॥ (याज्ञवलक्यस्मृतिः आचार- अध्याय, राजधर्म-श्लोक 309-311) जो श्रुति, स्मृति, शास्त्र के ज्ञाता नहीं होगें, प्रजा के पालन करने की क्षमता उनमें नहीं होगी, वे राजपद के लायक नहीं होंगे। जो राजा अन्यायपूर्वक राष्ट्रशोषण प्रजा शोषण करते हैं वे शीघ्र ही श्रीहीन होकर नष्ट हो जाते हैं। ऐसा कहा गया है…. !
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