देश में कोरोना-लॉकडाउन के नाम पर जितना क्रूर ज़ुल्म हर तबके के गरीबों पर खासकर मजदूरों पर ढाया गया है, वैसा न कभी देखा गया और नहीं सुना गया। इस दौरान देश-विदेश से धनाढ्यों या यह कहे कि 'संभ्रांतों' को लाने ,लेजाने के पूरे बंदोबस्त हुए और हो भी रहे हैं परंतु मजदूरों,गरीबों पर लंबे समय तक पाबंदी रही और अभी भी है । वे भूखें प्यासे कहीं रास्ते चलते-चलते थककर मर रहे हैं, कहीं बीमारी से तो कहीं बस, टृेन से कुचलकर मर रहे हैं।
आजादी के पहले और आजादी के बाद में मिले मजदूरों के तमाम अधिकारों को भी छीनने का सिलसिला भी इसी दरमियान शुरू हुआ है। लोकतंत्र कहलाते इस मुल्क में 'दास-तंत्र' की पदस्चप सुनाई पड़ रही है ! सत्ता में बैठें लोग 'कोरोना' को खत्म करना चाहते है या 'गरीबों' को ? शासन की कार्यप्रणाली से तो ऐसा लग रहा है कि कोरोना समाप्त होने से पहले गरीब,मजदूर ही समाप्त हो जाएंगे !
हालात के सामने मजबूर भूखे प्यासे लाचार प्रवासी मजदूरों का पलायन नहीं रुक पा रहा है,अब तो ऐसा लगने भी लगा है कि सरकारें स्वयं इसे रोकना नहीं चाहती । लाचार प्रवासी मजदूरों का पैदल सफर अनवरत जारी है। इस दौरान प्रवासी मजदूरों को प्रशासन की दुत्कार के साथ -साथ पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ रही है।
सरकारें कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण का रोना रोते हुए लॉकडाउन की अवधि निरंतर बढाती जा रही है। ऐसे में मजदूरों के समक्ष दो जून की रोटी के भी लाले पड़े हुए हैं। हालत के आगे बेबश और लाचार प्रवासी मजदूर शहरों से अपने गांवों की ओर पलायन नहीं करेगें तो क्या करेंगे ? सत्ता में बैठें सत्ताधीश उनके लिए खान-पान तक की भी व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं ! धिक्कार है लोकतंत्र के नाम पर सत्ता की कुर्सी पर बैठें सत्ताधीशों को !